पथ के साथी

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Thursday, June 1, 2017

742

रेखा रोहतगी
1-अंतर
सागर भी  जलमय
बूँद भी जलमय
फिर तुझ विराट
और मुझ लघु में क्या अंतर है
हमारे बीच की दूरी क्यों निरंतर है ..?

2-प्रमाण

अपने चिर नूतन
होने का ये प्रमाण देते हो
मेरे प्राणों को
नए -नए आकार देते हो 

-0-

Thursday, August 20, 2015

शब्दों और चित्रों के अद्भुत संगम



हाइगा वीथि - भावना सक्सैना

शब्दों और चित्रों के अद्भुत संगम व समायोजन से बने भावों के समंदर में डूबकर निकली हूँ आज। यह समंदर है सुप्रतिष्ठित कवयित्री रेखा रोहतगी जी की नवीनतम काव्यकृति हाइगा वीथि।
हाइगा अर्थात दो कलाओं का अद्भुत मेल, सरल चित्रों से शब्दों का संयोजन। जापनी कविता की एक समर्थ विधा हाइकु का सचित्र रूप। जैसा सत्रहवीं शताब्दी के जापानी कवि मात्सुओ बाशो ने लिखा था प्रकृति को समर्पित हो, प्रकृति में लौटो (Submit to nature, Return to nature); यही इस  वीथि का मूल भाव है, जिस तरह हाइकु कम शब्दों(5-7-5) में एक सशक्त अभिव्यक्ति करता है उसी प्रकार हाइगा का चित्र भी सीमित रेखाओं में गहनतम भावों को समेटता है।
हाइगा वीथि एक अनुपम प्रस्तुति है, गणपति वंदन के बाद माँ भारती का आशीर्वाद लेकर शुरू होती वीथिका सृष्टि, वृष्टि से होकर  गुज़रती, खेवैया से जर्जर नैया को बचाने की गुहार लगाती जहाँ एक ज़िन्दगी की कहानी कह देती है
       बाती- सा मन/ जल जल के जिया/ पिघला तन;
वहीँ अपने अस्तित्व का भी बोध दिखाती है और कहती है,
       मैं न वो धारा/ समा सिन्धु जिसका/ जल हो खारा।
वह अनुपमा है जिसकी उपमा नहीं कोई और नारी मन के प्रश्न को बड़े सुन्दर शब्दों में रखती है-
       तुमको पाया/ स्वयं को हारकर/ जीती या हारी?
जिंदगी के लगभग हर रंग को समेटे यह पुस्तक सकारात्मक सोच से लबरेज़ है। रेखा जी कहती हैं
       खोज लेती है/ हर दिशा में राह/मन की चाह।
रेखा जी के हाइकुओं को हाइगा रूप देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है ।शचि शर्मा जी ने और रेखा जी के शब्दों में ही कहा जाए तो वह एक एक हाइकु के कथ्य-तथ्य-सत्य की संवेदना को ग्रहण कर हाइकु मर्मज्ञ हो गई ।
पुस्तक में शामिल 71 सचित्र हाइकु  मन के भावों की प्रभावशाली अभिव्यक्ति है जैसा उन्होंने स्वयं भूमिका में लिखा है जब जब आँख खोलकर आसपास देखा, तो उस अनूठे विलक्षण स्रष्टा की छोटी से छोटी रचना में उसके विराट स्वरूप की झलक पाई तो इतना जान पाई कि मन का कोई भी भाव ऐसे नहीं है, जो आकार में न बँध पाए। हर पृष्ठ  पर उकेरी आकृतियों में इन भावों की अनुपम प्रस्तुति है।                   
-0-

Monday, July 6, 2015

अफसोस है इतना



1-भावना सक्सेना

खर्च हो जाता है दिन
झोले में भर यादें कई
अफसोस है इतना- सा बस
कि दिन ऐसे कितने खर्चे
जिनका झोले में 
कुछ हिसाब नहीं।
बेहिसाबी के
इस सफ़र का ही
तो नाम है जिंदगी।
-0-
2-कमल कपूर

1-  मेरी पहचान

मैं शब्दों की पाखी हूँ
मुझे चाहिए अक्षरों का चुग्गा जीने के लिए
स्याही का पानी पीने के लिए
और उड़ने के लिए कागजी आसमान
जो देखना चाहते हो मेरी उड़ान
तो गगन के स्तर को
ऊँचा, ऊँचा और ऊँचा कर दो
या कि फिर
धरा के स्तर को ही
नीचा ,नीचा और नीचा कर दो।
        2
जीत का जश्न तो मनाते हैं जमाने में सभी
हार पर  हार  चढ़ाओ  तो  कोई  बात बने।
दर्द  रोने  से  कभी   दूर    होगा   यारो!
तुम  दवा  इसको  बनाओ   तो कोई बात बने।
-0-
3-रेखा रोहतगी

सौ बार हारी
पर हारते रहने से
न हारी
करती रही
खेलते रहने की तैयारी ,
   -0-

Thursday, August 14, 2014

परी नदी

1-परी नदी
-डॉ०क्रांति कुमार, पूर्व प्राचार्या केन्द्रीय विद्यालय

कल- कल, छल छल का निनाद कर
हहराती कहाँ चली प्रिये
श्वेत शुभ्र फेनि वस्त्रों में
इठलाती ले चली हिये ।

पल भर रुक जा ,दो बातें कर
इतनी भी है क्या जल्दी
मतवाली बन होश न खोना
सुध तो ले जन जीवन की।

तट पर बसे नगर अनेकों
हरे खेत और देवालय
सिंचित कर औ प्यास बुझा कर
मधुमय कर दे जन जीवन।

माना कि गति ही है जीवन
पर इतनी भी क्या जल्दी
पथ के पथिकों से मिलती जा
अरी , रुको ओ परी नदी।
-0-
2-कृष्णा वर्मा
1-अभिलाषा 

जब-जब चाहा इस जीवन से
इसने सब भरपूर दिया
नहीं शिकायत कोई रब से
गले-गले सुख पूर दिया।

यूँ तो सदा सरल सुगम से
जीवन की की थी अभिलाषा
करुणाकर थी विधना मुझपर
पूर्ण हुईं मनचाही आशा।

प्रीत बनी प्रिय की मेरी शक्ति
धर संसार हुआ मेरी भक्ति
सहज फूल दो खिले सहन में
हर्षित मन ज्यों चाँद गगन में।

नहीं नैराश्य का संग अपनाया
संयम ही मुझे पग-पग भाया
दिन सुन्दर बने सांझ कुनकुनी
अपनों संग रही खुशी ठुमकती।

चली निरंतर पाने गंतव्य
मंज़िल पा गए लगभग मंतव्य
प्रिय का सुख सुत श्रवण मिले हैं
नहीं जीवन से मुझको गिले हैं।

बेटी की भी कमी रही ना
जब बेटी सी बहू घर आई
बेटे के बेटे ने जन्म ले
रिश्तों में मृदु गाँठ लगाई


मिले-जुले अनुभव जिए सारे
ढली उम्र के सुखद सहारे
जीवन अतल भरा यादों से
रही शिष्ट निज के वादों से।

-0-
2-आँखों का उलाहना

देती हैं मेरी आँखें
मुझे नित्य उलाहना
बे वक्त जगाने का
यह तुमने क्या ठाना
चर्राया यह क्या तुम्हें
कविताओं का शौक
लगा कहाँ से लिखने का
यह संक्रामक रोग
आँखों को शिकायत है
मेरी कविताई से
उल्लू सा जगा रखते
भावों की लिखाई में
ख़्यालों के शिकंजे में
जब-तब घिर जाते हो
बेचैन हृदय होता
सज़ा हमें सुनाते हो
दिल बंजर धरती- सा
ना पानी ना माटी
जाने दुख-सुख की कैसे
चित्तवृत्ति उग आती
घंटों तकें शून्य में हम
नभ की गहराई में
इक वाक्य बनाने को
शब्दों की जुटाई में
सोचों का सफर लम्बा
कर-कर हम थक जातीं
दरबान- सी पलकें भी
झपकन को तरस जातीं
कविताओं का घुन कुतरे
नींदों के किनारों को
बरबस तुम बाँधा करो
बेबाक विचारों को
यह भाव निगोड़े क्या 
मकड़ी के भतीजे है
बिन ताने-बाने के
कविता बुन लेते है
दिन-रात मगजमारी
इक कवि कहलाने को
शब्दों को उमेठते हो
कुछ तालियाँ पाने को
जब तक कलम चले
हमें संग जगाते हो
भावों के प्रवाहों पे
क्यूँ ना बाँध लगाते हो
मुई यह कविताएँ  क्यूँ
फिरें दिन में आवारा
जब कौली भरे रजनी
खटकातीं आ मन द्वारा।
-0-
3- रेखा रोहतगी
 सतरंगी  सपने

सतरंगी  सपने
धुआँ - धुआँ  से हुए रिश्ते
बदगुमाँ हुए  लोग
जिंदगी भर हम
अपनेपन के लिए
तरसते रहे
गले में हुई रस्सी
हाथों की बनी हथकड़ी
जिन्हें जिन्दगी भर हम
गहने समझ
सजते-सँवरते रहे
राख-सा  लिबास
मटमैला आँचल  पहन
जिन्दगी भर हम
सतरंगी सपने
बुनते रहे
काँटों की चुभन
अँगारों की जलन  लिये
एक आसान जिन्दगी के लिए
जिन्दगी भर हम
पते रहे
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