पथ के साथी

Monday, July 31, 2017

752

पीपल प्रेमी की बाहों में

डॉ कविता भट्ट (हे न ब गढ़वाल विश्वविद्यालय,श्रीनगर गढ़वाल, उत्तराखंड)

साँसे कुछ रुक-रुककर चली जा रही थी
धड़कन बीमार कुछ-कुछ रुकी जा रही थी
डॉक्टर ने भेजा दवा का लम्बा चिट्ठा लिखकर
आँखें कृश देह रूपसी की मुँदी जा रही थीं।

जीवन से क्षुब्ध, तन से दु:खी  हो जा रही थी
व्यथित, पसीने से नहा, रोतीं-कुढ़ी जा रही थी
शीतल स्पर्श पाकर, वो रुकी कुछ ठिठककर
पीपल प्रेमी मुस्कुराता खड़ा, बाहें खुली जा रही थीं।

आँचल गिरा, उसकी बाहों में सिमटी जा रही थी
सरसराहट पत्तियों की कानों में घुली जा रही थी
प्रेमगीत धुन पर, दुलारा-सहलाया उसने जी भरकर
प्रिय की साँसे जीवन को साँसें दिए जा रही थीं।

जिसके चुम्बन से वो इतना लहरा रही थी
रूप का लोभ न था, इसके प्रेम पर इतरा रही थी
यौवन-मोह तजे योगी सा- लिंग-धर्म-जाति से ऊपर
प्रेम बाँटती असंख्य बाहें, जीवन-अमृत बरसा रही थीं।

जिसकी खोज में उम्र निकलती ही जा रही थी
स्त्री-पुरुष-शरीरों की परिधि से रहित रटे जा रही थी                                                   
काश! मानव में भी फूटें ऐसे ही उन्मुक्त प्रेम-निर्झर
कविता’ पीपल प्रेमी की बाहों में ये बुदबुदा रही थी


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2-गुंजन अग्रवाल
गीत
कैसे ये तीज मनाऊँ मैं।
कैसे तो रीझ दिखाऊँ मैं।

बिन साजन सूना सावन है।
सूना ये मन का आँगन है।
धूमिल आंखों का काजल है
घिरता यादों का बादल है
तुझको तो सनम बुलाऊँ मैं।
कैसे तो तीज मनाऊँ मैं.......

झूलों पर पींग भरें सखियाँ
यादें झरती रहती अँखियाँ
हाथों की मेहंदी चिढ़ा रही।
सौंधी सी महक उड़ा रही।
जब तुझको पास न पाऊँ मैं।
कैसे तो तीज मनाऊँ मैं........

चंचल सी शोख हसीना- सी।
पुरवा संग झूम सफीना -सी।
पुरवा जब छेड़ा करती थी।
मीठी अँगड़ाई भरती थी।
अब गीत न कजरी गाऊँ मैं।
कैसे तो तीज मनाऊँ मैं.....


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Saturday, July 29, 2017

751

रहबर (लघुकथा)
डॉ हरदीप कौर संधु 
Image may contain: one or more peopleसरकारी अस्पताल में से उसे जवाब मिल चुका था। उसकी हालत अब नाज़ुक होती जा रही थी। आंतरिक रक्तस्त्राव के कारण जच्चा -बच्चा की जान को ख़तरा बनता जा रहा था। नाजर के माथे पर चिन्ता की रेखाएँ और गहरी होती जा रही थीं। बहुत कम दिन मिलते काम के कारण रूपये -पैसे का प्रबंध भी नहीं हुआ था। चौगिर्दा उसको साँस दबाता  लग रहा था। उसकी साँस फूलने लगीं और वह ज़मीन पर बैठ गया। 
"चल उठ ! नाजरा मन छोटा न कर पुत्र ! मैने तो पहले ही बोला था कि हम गिन्दो को काशी अस्पताल ले चलते हैं। वहाँ तेरा एक भी पैसा खर्च नहीं होगा अगर लड़की हुई तो। डाक्टरनी साहिबा लड़की होने पर कोई पैसा नहीं लेती। दवा भी मुफ़्त देती है और सँभाल भी पूरी होगी। " पड़ोस से साथ आई अम्मा ने सलाह देते हुए बोला। 
नाजर अब लेबर रूम के बाहर हाथ जोड़कर बैठा था। शायद उस प्रभु की किसी रहमत की आशा में। मगर उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। 
"लाडो गुड़िया हुई है ,कोई फ़ीस नहीं ,बस गुड़ की डलिया से सब का मुँह मीठा कीजिएगा। " रहबर बनी डाक्टर के बोल सुनकर नाजर की आँखों में शुक्राने के अश्रु तैरने लगे। 

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Saturday, July 22, 2017

750

रमेश गौतम  के दो नवगीत
1
जल संवेदना
 अब नहीं शृंगार
प्रणय-याचना के
मैं लिखूँगा गीत जल संवेदना के

पूछते हैं रेत के टीले हवा से
खोखला संकल्प क्यों जल संचयन  का
गोद में तटबन्ध के लगता भला है
हो नदी का नीर या पानी नयन का
अब नहीं मनुहार
मधुवन यौवना के
मैं लिखूँगा गीत जल अभिव्यंजना के

ताल के अस्तित्व पर हँसती हुई जब
तैरती है सुनहरी अट्टालिकाएँ
बादलों से प्रश्न करती मछलियाँ तब
किस जगह अपना घरौंदा हम बनाएँ
अब नहीं व्यापार
कंचन कामना के
मैं लिखूँगा गीत जल आराधना के

एक दिन हो जाएगा बंजर धरातल
बीज बारि के यहाँ बोना पड़ेंगे
तप्त अधरों पर कई सूरज लिये हम
मरुथलों में युद्ध पानी के लड़ेंगे
अब नहीं दरबार
में नत प्रार्थना के
मैं लिखूँगा गीत जल शुभकामना के
 .0.
2
 
दीपशिखा से जले सभी के
मटमैले आगारों में
अपना दर्द समेटा हमने
जुगनू भर उजियारों में

हारे नहीं कभी हम आँधी
अँधियारों की आहट से
हार गये अपने ही रिश्तों की
बारीक बुनावट से
पीर धरे सिरहाने सोए
जागे हाहाकारों में

बहुत घना बादल आँखों में
जाने कब से ठहरा है
नाप न पाया अब तक कोई
पानी कितना गहरा है
जर्जर सेतु स्वयं ही बाँधा
बीच भँवर मझधारों में

बाँध किसी के मन को पाते
ऐसी कला नहीं आई
थोड़े सुख के लिए किसी की
विरुदावली नहीं गाई
कैसे जगह हमें मिल पाती
रंग चढ़े दरबारों में

किसे दिखाते अन्तर्मन में
एक हिमालय जमा सघन
मौन पिघलता तो बह जाता
सम्बन्धों का वृन्दावन
साध लिया हर आँसू का कण
पलकों के गलियारों में

अभिशापित अधरों पर कोई
पनघट तरस नहीं खाता
मरुथल के घर किसी नदी का
कब कोई रिश्ता आता
प्यास थकी आँचल फैलाए
मेघों की मनुहारों में

किसी भटकते बंजारे की
प्यास नहीं सींची होगी
लौट गया होगा खाली ही
घर से फिर कोई जोगी
मन आजीवन दण्ड भोगता
तन के कारागारों में

-0-

Tuesday, July 18, 2017

749


1-दूर जाते हुए
                       डा कविता भट्ट

दूर जाते हुए मन सीपी-सा उसकी यादों के समंदर में खोया था
जिसके सीने को मैंने कई बार अपने आँसुओं से भिगोया था

खोज रही थी आने वाले हर चेहरे में उसका निश्छल चेहरा
भोली आँखें- जिनकी नमी वो ज़माने से छिपाता ही रहा

बस इसलिए कि कहीं मेरी आँखें फिर से बरसने न लगें
दोनों का दर्द एक-सा है, कहीं दुनिया समझने न लगे
 
झूठे-बनावटी सम्बन्धों के महलों की नींव न हिल जा
तथाकथित सभ्यता-नैतिकता कहीं धूल में न मिल जा

रिश्तों के महल बस बाहर से ही सुन्दर होते हैं दिखने में
उम्र गुरी बेशकीमती सम्बन्धों-रिवाजों के सामान रखने में
    
इन सामान की झाड़-पोंछ में रखी नहीं कभी तनिक भी कमी ।
खो देते हैं अपनी बात ,कहने का हुनर, आँखों की नमी

बन जाते हैं मात्र मशीन सम्बन्धों के लिए नोट छापने वाली
एक ही छत तले रहते रोबोट; आकृति- मानव -सी दिखने वाली

नम आँखों वाला वो  शख़्स क्या फिर से मन की खाई भरेगा
मेरे कंधे पर अपनी हथेली से हमदर्दी के हस्ताक्षर करेगा

मुझे गले लगाकर; क्या सच्ची बात कहने का हुनर दोहराएगा 
जो सभ्यता में नहीं; क्या वह उस सम्बन्ध की धूल हटाएगा

जो मिलकर नम होती हैं ,बरस सकेंगी वो आँखें क्या दूर जाते हुए ?
या समेटे रखेंगी ज्वार-भाटा सभ्यता-नैतिकता का घुटते-घुटाते हुए ?

-0-(हे०न०ब० गढ़वाल विश्वविद्यालय,श्रीनगर गढ़वाल उत्तराखंड)
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2-तुम और मैं
                   मंजूषा मन

किसी सोते -से फूट पड़े
और बहने लगे
विचारों में, लहरों में,
तुम्हारी झर -झर की आवाज़
बस यही सुनाई देती है
तुमने ऊँची- ऊँची चट्टानें काट
अपने लिए राह बना ली...
तुम अपने पानी से धोने लगे
पैरो की खुरदुराहट,
बिवाइयों पर ठंडा लेप बनकर
देने लगे राहत,
तुम्हारी शीतलता बुझाने लगी जलन
तवे से तपते आँगन की...
तुम अपने दोनों हाथों में पानी भर
सुध -बुध खो चुके
थके-हारे चेहरे पर छिड़कते हो
एक सिहरन के बाद
हौले से खुलतीं है आँखें
तुम मुस्करा देते हो
वो भी मुस्कुरा देती है....

वो तपती धरती है
तुम बादल फाड़कर बहे जल
या मैं हूँ धरती
और तुम बस तुम हो.....
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3-यह जीवन   
पुष्पा मेहरा                       

यह  जीवन है मनहर उपवन, मधुर गंध का झोंका है।
भाँति-भाँति के फूल यहाँ हैँ, मलय पवन मनभावन है।।

एक ही वीणा है, पर इसके सुर सभी निराले हैं।
ढल जाते जब ये रागों में, गीत मधुर बन जाते हैं ।।

मिल कर रहते, मिल कर बजते, मिलकर चोटें सहते हैं ।
चोटों से कभी न ये घबराते, तान सुमधुर लेते  हैं ।।

इस जीवन का संगीत मनोहर, हमसे रूठ न जाए।
जीवन की बजती वीणा के तार  बिखर ना जाएँ ।।

वीणा के तारों पर नित, हम तान मिलाप की लेते रहें ।
सत भावों की स्वर लहरी में,डूब-डूब मन हर्षाएँ ।।

इन्द्रधनुष -सी जीवन-छवि है, बूँदों का मात्र छलावा है ।
धूप मोह है, सत्य है छाया, ये जग मात्र भुलावा है  ||

रंगों का ये कैनवस न्यारा, सुख-दुख ने चित्र उकेरा है ।।
ऊँची-नीची राहें हैँ,पर सबका एक ठिकाना है ।।

पानी के बुलबुले-सा जीवन , जाने कब मिट जाना है |
टकराती इन लहरों में ही, सबको पार उतरना है ||

मिल कर रह लें,मिल कर जी लें,मिल कर ही चोटें सह लें |
चोटों से कभी न घबराएँ, हौंसलों  को पस्त न होने दें ||
-0-
पुष्पा मेहरा,बी-201,सूरजमल विहार,दिल्ली-110082

फ़ोन: 011-22166598

Saturday, July 8, 2017

748

सत्या शर्मा ' कीर्ति '
1 -  हम - तुम  

सुनो ना  ....
मेरे मन के
गीली मिट्टी
से बने
चूल्हे पर
पकता
हमारा- तुम्हारा
अधपका-सा प्यार
हर बार मुझे
एक नए
स्वाद से
भर देता है
पता है तुम्हें......
2
कभी - कभी
अपनी हसरतों को
टाँग देती हूँ
मन की खूँटी पे

और सींचती हूँ
उसे अपने
खूबसूरत सपनों से

अकसर देखती हूँ
उसमें अंकुरित होते
अपने अरमानों को

पुष्पित प्रेम की कलियों को
खोंस लेती हूँ
अपने अन्तर्मन के
गुलदस्ते में,

ताकि जब कभी आओ तुम
तुम्हें सौंप सकूँ
हमारे - तुम्हारे
अनकहे पलों के
बासंती रंग
3
हाँ
फिर आऊँगी
तुम्हारी यादों में

अपने दिल
के कमरे को
रखना तुम
खाली

सुनो!  बाहर
शोर होगा
जमाने का
और
दुखों की ते
धूप में
पीले हो जाएँगे
हमारे रिश्ते के
कोमल पत्ते
पर फिर भी
आऊँगी तब
मेरी धड़कनों की
आहटों पर

तुम खोल देना
अपने मन में
चढ़ी वेदना की
साँकल को .....
-0-