पथ के साथी

Thursday, January 31, 2008

संस्कार

साहब के बेटे और कुत्ते में विवाद हो गया। साहब का बेटा कहे जा रहा था–‘‘यहाँ बंगले में रहकर तुझे चोंचले सूझते हैं। और कहीं होते तो एक–एक टुकड़ा पाने के लिए घर–घर झाँकना पड़ता। यहाँ बैठे–बिठाए बढ़िया माल खा रहे हो। ज्यादा ही हुआ तो दिन में एकाध बार आने–जाने वालों पर गुर्रा लेते हो।’’
कुत्ता हँसा–‘‘तुम बेकार में क्रोध करते हो। अगर तुम भिखारी के घर पैदा हुए होते तो मुझसे और भी ईर्ष्या करते। जूठे पत्तल चाटने का मौका तक न मिल पाता। तुम यहीं रहो, खुश रहो, यही मेरी इच्छा है।’’
‘‘मैं तुम्हारी इच्छा से यहाँ रह रहा हूँ? हरामी कहीं के।’’ साहब का बेटा भभक उठा।
कुत्ता फिर हँसा–‘‘अपने–अपने संस्कार की बात है। मेरी देखभाल साहब और मेमसाहब दोनों करते हैं। मुझे कार में घुमाने ले जाते हैं। तुम्हारी देखभाल घर के नौकर–चाकर करते हैं। उन्हीं के साथ तुम बोलते–बतियाते हो। उनकी संगति का प्रभाव तुम्हारे ऊपर ज़रूर पड़ेगा। जैसी संगति में रहोगे, वैसे संस्कार बनेंगे।’’
साहब के बेटे का मुँह लटक गया। कुत्ता इस स्थिति को देखकर अफसर की तरह ठठाकर हँस पड़ा।

1 comment:

  1. ज़िंदगी की कटु सच्चाई को उजागर करती ये पंक्तियाँ दिल पर गहरा असर डालते हुए बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है...|
    बधाई...|

    ReplyDelete